Banshi Dhar ‘Shaida
1904 – 1988
भारतवर्ष की इस पवित्र धरती पर समय-समय पर ऐसे अनेक महापुरुषों का अवतरण होता रहा है। जिनके सराहनीय कार्यो से केवल उनका परिवार एवं समाज का हित ही नहीं, परन्तु संपूर्ण विश्व के मानव – कल्याण हेतु अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है। ऐसे कार्यों को करते हुए इन महापुरुषों को किंचित मात्र भी अभिमान अथवा घमंड नहीं रहा है।
बंशीधर शैदा भी एक ऐसे ही सुप्रसिद्ध कवि, शायर, लेखक एवं समाज सुधारक हुए हैं। उनका जन्म २० जुलाई १९०४ को उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में एक संभ्रांत कायस्थ परिवार में हुआ था। उन्हें मात्र ८ वर्ष की उम्र में ही भगवत गीता एवं दुर्गा सप्तशती कंठस्थ थे। बाल्यकाल से बैरागी होने के कारण शैदाजी सदैव गंभीर रहते हुए चिंतन में विलीन रहते थे। समयानुसार हिंदी के साथ उर्दू की पढाई भी की किन्तु स्वाभाविक रूप से हिंदी भाषा का ज्ञान अधिक महत्वपूर्ण रहा और १६ वर्ष की आयु से हिंदी में कविता लिखने में निपुण हो गए । उर्दू में भी शायरी और ग़ज़ल लिखने के कारण उन्होंने अपना तख़ल्लुस “शैदा” रखा था। युवावस्था में वे कुश्ती एवं लाठी चलाने में पारंगत होने के साथ पारिवारिक खेती की देखभाल भी करते थे। उनकी कविताओं में सांसारिक प्रेम कूट कूट कर भरा था।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात देश-भक्ति एवं स्वतंत्रता का माहौल गर्म हो चला था। १९२६ में स्वामी श्रद्धानन्द की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस समाचार के पश्चात कुछ ही घंटों में "खूनी-पिस्तौल" नाम की एक ८ पेज की छोटी सी किताब कविता के रूप में लिखी और रात में ही छपवाकर अगले दिन स्वामीजी की शव-यात्रा के दौरान हज़ारों प्रतियाँ बांटी गईं। इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरुप अंग्रेजी प्रशासन को दंगा एवं मार-काट का अंदेशा हुआ और सरकार द्वारा इस किताब के लेखक एवं प्रकाशक की गिरफ़्तारी के आदेश जारी कर दिए गए। परन्तु किताब में लेखक एवं प्रकाशक का नाम न होने के कारण कोई भी व्यक्ति गिरफ्तार न हो सका और शैदाजी दिल्ली से वापस फर्रुखाबाद आ गए।
तत्पश्चात उन्होंने हिन्दू-धर्म की सेवा का प्रण लिया और वाल्मीक रामायण का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद करने के उद्देश्य से जंगल में कुटिया बनाकर वाल्मीक रामायण का अनुवाद प्रारम्भ कर दिया। लगभग १४ वर्षों में संस्कृत भाषा की वाल्मीक रामायण का दोहा चौपाइओं तथा अर्थों सहित शुद्ध हिंदी मैं अनुवाद पूर्ण किया और १९४२ में श्री रामायण प्रेस की स्थापना की तथा वाल्मीक रामायण (दोहा-चौपाइओं अर्थों सहित) का प्रकाशन किया। शैदाजी द्वारा लिखित एवं प्रकाशित यह
रामायण प्रथम महाकाव्य था। इसके पश्चात उन्होंने श्रीमद भागवत एवं गीता दर्पण का भी संस्कृत के श्लोकों का हिंदी दोहा-चौपाइओं में अर्थों सहित अनुवाद करके प्रकाशित किया।
इन दिनों भारतवर्ष में द्वितीय विश्वयुद्ध और आजादी का आंदोलन उग्र था और शैदाजी की इन रचनाओं ने देश की जनता को एकजुट करने में बहुत बड़ा योगदान दिया। १९४७ में स्वतंत्रता के पश्चात शैदाजी ने अनेकों पुस्तकें लिखीं। शैदाजी ने धार्मिक काव्यों के अलावा गजल, शायरी, भजन तथा आल्हा आदि १०० से अधिक पुस्तकें लिखकर प्रकाशित कीं। इससे पूर्व इतनी सुन्दर आसान एवं हिंदी में धार्मिक काव्य, पूजा एवं सामाजिक पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं। शैदाजी की इन रचनाओं ने
उन्हें हिंदी जन-मानस का परम-प्रिय कवि बना दिया।
संपूर्ण विश्व में शैदाजी अकेले ऐसे व्यक्ति कहे जा सकते हैं जिसने स्वयं दस हजार से अधिक प्रष्ठों की विभिन्न पुस्तकें लिखी और स्वयं प्रकाशित कीं। १५ नवम्बर १९८८, कार्तिक षष्ठी के दिन प्रातः ४ बजे शैदाजी ने अपना शरीर त्याग दिया। यहाँ पर यह बताना अनुचित नहीं होगा की शैदाजी ने एक दिन पहले अर्थात १४ नवम्बर को परिवार को सूचित कर दिया था कि वह शरीर त्याग रहे हैं। और निर्वाण से पूर्व उन्हें संपूर्ण जीवन में किसी प्रकार की बीमारी अथवा अस्वस्थता की शिकायत नहीं थीं।